Azadi ki wo raat ( आज़ादी की वो रात ) 2022 में हम देश की आजादी का 75वा स्वतंत्रता दिवस मनाने जा रहे है। आजादी के मौके पर इस साल का “आज़ादी का अमृत महोत्सव” 15 अगस्त को मनाया जा रहा है।
200 साल तक पराधीन रहने के बाद कई कोशिश के बाद हमे 15 अगस्त 1947 को आजादी मिली। न जाने कितने स्वतंत्र सेनानियों ने अपना लहू बहाया इस आज़ादी को पाने के लिए। अंग्रेजों के व्यापर से शुरू होकर न जाने कब यह शासन करने की और चला गया, हमे पता ही नहीं चला। अत्याचार में अतिष्ठ होकर लोग आंदोलन करने लगे और धीरे धीरे आंदोलन का चिंगारी ने विद्रोह का रूप ले लिया।
महात्मा गांधी, सुभाष चंद्र बोस, लाल बहादुर शास्त्री , पंडित जवाहरलाल नेहरू जैसी कई हस्तियों ने समय समय पर अपने काबिलियत दिखाते हुए आजादी के मौर्चो को संभाला। राजगुरु, भगत सिंह, मंगल पांडे, रानी लक्ष्मी बाई ने लड़ाई में अपने प्राण तक न्यौछावर कर दिए।
उन महान आत्मायों के बलिदान को हमे कभी जाया नहीं करनी चाहिए। अगर वे तब अंग्रेजो के खिलाफ उठ खड़े न होते तो आज भी हम गुलाम बनकर ही रहजाते। चलिये आज चर्चा करते है अखंड भारत के विभाजन तथा 14 और 15 अगस्त की वो काली रात के बारे में।
आजादी की रात 14 और 15 अगस्त 1947
15 अगस्त की कहानी शुरू होती है उससे ठीक एक दिन पहले 14 अगस्त की रात को 9 बजे, जब भारत के भावी प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में भारतवासियों को उदबोधन देश की आजादी की देशवासियों को शुभकामनाये दे रहे थे।
गौर करने वाली बात यह है कि तब तक नेहरू जी आधिकारिक तौर पर प्रधानमंत्री नहीं बने थे, वे वाइसराय माउंट बैटन के निवास (आज के राष्ट्रपति भवन) से रेडियो के माध्यम से यह भाषण दे रहे थे, पर स्वतंत्रता के निम्ब रखने वाले बापूजी उस वक़्त राजधानी दिल्ली में न होकर दूर कहीं किसी गाँव में थे।
देश में तनाव का माहौल था, भले ही आज़ादी मिल रही थी, पर किस कीमत पर? भाई भाई में बैर करके, घरों को तोड़के, लोगों को विस्थापित करके। शायद उस जैसा विस्थापन दुनिया ने न कभी देखा था और न ही कभी देखने वाला था।
हर साल के जून की तपती गर्मी दिल्ली वासियों का हाल तो बेहाल करता ही है, पर 1947 की वो जून कुछ ज्यादा ही गर्मी लेके आयी थी। सरकार बंटवारे के बारे में पूरी तरह से वाकिफ थी, तैयारी काफी पहले से की जा रही थी। जून के महीने अधिकारियों की बैठक बार बार हो रही थी, पर पूरा देश इससे बेखबर था।
आखिर 15 अगस्त ही क्यों चुना गया था ?
जिम्मा माउंट बैटन पर था, देश को किसी भी हाल में आज़ाद करने का। आज़ाद भारत से ब्रिटिश सरकार की आखरी टुकड़ी ने सन 1948 में भारत छोड़ा, अगर उनके हाथ में एक साल था तो अगस्त 15 ही क्यों ? कोई और तारीख या महीना क्यों नहीं!
इसका जवाब आपको मिलेगा द्वितीय विश्वयुद्ध से। आपको याद ही होगा, जापान ने अगस्त 15 को आत्म समर्पण किया था। चाहे इससे आप ब्रिटिसज की चाल कहे या उनके पीठ पीछे छुरा भोंकना, मगर भारत के कई सारे ज्योतिष इसका विरोध करते नजर आये।
तिथियों के हिसाब से 15 अगस्त भारत के लिये अत्यंत ही अशुभ था परन्तु माउंट बैटन भी अपने निर्णय से झुकने वालो में से नहीं थे। फिर बिच का रास्ता अपनाते हुए 14 अगस्त रात के 12 बजे का समय निर्धारित किया गया क्योंकि शुभ मुहूर्त 14 अगस्त के 11 बजकर 51 मिनट से 12 बजकर 39 मिनट तक था।
दुनिया ने देखा सबसे बड़ा विस्थापन –
आज़ादी का बिगुल बजा ही नहीं था, के विस्थापन शुरू होने लगा थे। जो हिन्दू-मुस्लमान कभी भाई भाई के तरह रहते थे अब वे एक दूसरे के जान के प्यासे बन गए। एक दुसरो के आँखों में खटकने लगे थे। करोडो के तदाव में लोग बेघर हो रहे थे।
दोनों ही तरफ से लोगों को खदेड़ा जा रहा था दूसरे मुल्क में भागने के लिए। ऐसे में भला लोग करते तो क्या करते! अपने जान बचाकर भागने के सिवा उनके पास कोई दूसरा उपाय ही न रह गया था।
कहने को तो देश आज़ाद हो रहा था, पर कभी उस मुल्क में खुद को सुरक्षित समझने वाले आज खुद के ही घर में असुरक्षित थे। भारत से मुस्लमान पाकिस्तान को और पाकिस्तान से हिन्दू भारत को भागे जा रहे थे। किसी के आँखों में देश आज़ादी की खुशियां लहरा रही थी, तो किसी के आँखों में ख़ौफ़ झलक रहा था। चारो और कत्ले आम होना शुरू हो गया था। घरों को जलाया जा रहा था, अफरा तफरी में अपने जरुरत के सामान को लेकर लोग भागने लगे थे।
आज़ादी की पहली रेल गाड़ी जब विस्थापितों को पाकिस्तान से लेकर भारत पहुची तो देखने वाले दंग रह गए थे। किसी के सर धड़ से अलग थे तो किसी के हाथ पैर अपने शरीर से कहीं दूर। ऐसे ख़ौफ़नाक नज़ारे शायद विश्वयुद्ध में भी न देखने को मिले होंगे। यहा दुश्मन पडोसी मुल्क के जवान नहीं, बल्कि कभी खुद के अपने कहे जाने वाले लोग थे। नज़ारे ऐसा होने लगा के लोग लाशों को पहचान तक नहीं कर पाए थे।
जो लोग पैदल ही देश छोड़ कर भाग रहे थे, जुल्म उन पर भी कम न हुआ। अपने जान बचाने के लिए लोग अपने परिवार तक को पीछे छोड़ आये। ऐसे में माँ भी अपने बच्चे को बीच सड़क पर ही फेंक कर आगे बढ़ने लगी थी, डर था अगर पीछे छूट गयी तो पता नहीं उसका हस्र क्या होगा।
जुल्म की वो तस्वीरे भले ही आज हमें फोटो में देखने को न मिले, पर उस वक़्त के लोगों के मन में आपबीती शायद जाहिर हो पाती तो यह महाभारत के उस युद्ध से भी कहीं दर्दनाक कहानी बयां कर रही होती।
अखंड भारत का बंटवारा
अंग्रेज देश को छोड़ कर जा तो रहे थे, पर जाते जाते एक ऐसी चिंगारी को सुलझा गए जिसके आग से देश आज भी झुलस रहा है। वाइसराय माउंट बैटन द्वारा जून 3 को ही भारत का बंटवारा होने का एलान कर दिया गया था। क्योंकि भारत के पहले प्रधानमंत्री होने की आस में बैठे मोहम्मद अली जिन्ना को जब गाँधीजी ने ना तो उन्होंने मुसलमानों के लिए एक अलग ही देश की मांग करने लगे।
अंग्रेजो को तो बस एक मौका चाहिए था देश के टुकड़े करने के लिए। देश को आज़ादी मिलने के दो दिन तक भी देश का वो बदनाम लकीर नहीं खिंचा गया था जो इस अखंड भारत को दो हिस्सों में बांट रहा था। 7 लाख 96 हजार वर्ग किलो मीटर से भी ज्यादा ज़मीन को तोड़ कर बना पाकिस्तान।
सुदूर स्कॉटलैंड से सर सायरिल रेडक्लिफ का आगमन भारत को तोड़ने के उद्वेश्य से ही हुआ था। जिनको न तो भारत का कोई ज्ञान था, न ही भौगालिक अवस्थितियों का कोई अनुभव। आज भी उनके नाम से भारत की वो बदनाम लकीर महजूद है जो रेडक्लिफ लाइन के नाम से जाना जाता है।
अंतिम शब्द
इस लेख में आपको बंटवारे और Azadi ki wo raat ( आज़ादी की वो रात ) के बारे में बताने की कोशिश की है। उम्मीद है आपको यह लेख पसंद आया होगा।